रस किसे कहते हैं? | रस की परिभाषा,भेद और उदाहरण

हेलो दोस्तों, Hindisosimple.com हिंदी ब्लॉग पर आपका स्वागत है आज आर्टिकल के माध्यम मैं हम पढ़ेंगे रस(ras kise kahate hain) किसे कहते हैं? | रस की परिभाषा,भेद और उदाहरण के बारे में। इस ब्लॉग पर हिंदी ग्रामर से संबंधित सभी टॉपिक के बारे में जानकारी उपलब्ध है आप चाहे तो उन्हें भी पढ़ सकते हैं। चलिए अब रस के बारे में पढ़ना शुरू करते हैं।

रस किसे कहते हैं? | रस की परिभाषा,भेद और उदाहरण
रस किसे कहते हैं? | रस की परिभाषा,भेद और उदाहरण

रस की परिभाषा (Ras ki paribhasha) –

रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनंद’। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है,
उसे ‘रस’ कहा जाता है।

भोजन रस के बिना यदि नीरस है, औषध रस के बिना यदि निष्प्राण है, तो साहित्य भी रस के बिना निरानंद है। यही रस साहित्यानंद को ब्रह्मानंद-सहोदर बनाता है। जिस प्रकार परमात्मा का यथार्थ बोध कराने के लिए उसे रस-स्वरूप ‘रसो वै सः’ कहा गया, उसी प्रकार परमोत्कृष्ट साहित्य को यदि रस-स्वरूप ‘रसो वै सः’ कहा जाय, तो अत्युक्ति न होगी।

जिस तरह से लजीज भोजन से जीभ और मन को तृप्ति मिलती है, ठीक उसी तरह मधुर काव्य का रसास्वादन करने से हृदय को आनंद मिलता है। यह आनंद अलौकिक और अकथनीय होता है। इसी साहित्यिक आनंद का नाम ‘रस’ है। साहित्य दर्पण के रचयिता ने कहा है- ”रसात्मकं वाक्यं काव्यम्” अर्थात रस ही काव्य की आत्मा है।

रस को ‘काव्य की आत्मा/ प्राण तत्व’ माना जाता है।

अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

रस के अंग

रस के चार अंग है-
(1) विभाव
(2) अनुभाव
(3) व्यभिचारी भाव
(4) स्थायी भाव।

विभाव –

(1) विभाव :- जो व्यक्ति, पदार्थ अथवा ब्राह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक करता है, उन कारणों को ‘विभाव’ कहा जाता है।
दूसरे शब्दों में- रस के उद्बुद्ध करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं।

अर्थात् जो सामाज में रति आदि भावों का उदबोधन करते हैं, वे विभाव हैं।

विभाव के भेद

विभाव के दो भेद हैं- (क) आलंबन विभाव (ख) उद्दीपन विभाव।

(क)आलंबन विभाव- जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते है, आलंबन विभाव कहलाता है।
जैसे नायक-नायिका।

आलंबन विभाव के दो पक्ष होते है- आश्रयालंबन व विषयालंबन।
जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन कहलाता है। जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है।
उदाहरण- यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।

(ख) उद्दीपन विभावजिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्यीप्त होने लगता है, उद्दीपन विभाव कहलाता है।
सरल शब्दों में- जो भावों को उद्दीप्त करने में सहायक होते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं।
विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में लिखा है- ”उद्दीपनविभावास्ते रसमुद्दीपयन्ति ये” ।

जैसे- चाँदनी, कोकिल, कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।

अनुभाव-

(2) अनुभाव :- आलम्बन और उद्यीपन विभावों के कारण उत्पत्र भावों को बाहर प्रकाशित करनेवाले कार्य ‘अनुभाव’ कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- मनोगत भाव को व्यक्त करनेवाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते है।

सरल शब्दों में- जो भावों का अनुगमन करते हों या जो भावों का अनुभव कराते हों, उन्हें अनुभव कहते हैं :

अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है-

  • (1) स्तंभ
  • (2) स्वेद
  • (3) रोमांच
  • (4) स्वर-भंग
  • (5 )कम्प
  • (6) विवर्णता (रंगहीनता)
  • (7) अश्रु
  • (8) प्रलय (संज्ञाहीनता/निश्चेष्टता) ।

अनुभाव के भेद –

अतः अनुभाव के चार भेद है-
(क) कायिक (ख) वाचिक (ग) मानसिक (घ) आहार्य (च) सात्विक

(क) कायिक- कटाक्ष, हस्तसंचालन आदि आंगिक चेष्टाएँ कायिक अनुभाव कही जाती है।

(ख) वाचिक- भाव-दशा के कारण वचन में आये परिवर्तन को वाचिक अनुभाव कहते हैं।

(ग) मानसिक- आंतरिक वृत्तियों से उत्पत्र प्रमोद आदि भाव को मानसिक अनुभाव कहते हैं।

(घ) आहार्य-बनावटी वेशरचना को आहार्य अनुभाव कहते हैं।

(च) सात्विक- शरीर के स्वाभाविक अंग-विकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं।

व्याभिचारी या संचारी भाव-

(3) व्यभिचारी या संचारी भाव :- मन में संचरण करनेवाले (आने-जाने वाले) भावों को ‘संचारी’ या ‘व्यभिचारी’ भाव कहते है।

व्यभिचारी या संचारी भाव ‘स्थायी भावों’ के सहायक है, जो अनुकुल परिस्थितियों में घटते-बढ़ते हैं।
आचार्य भरत ने इन भावों के वर्गीकरण के चार सिद्धान्त माने हैं- (i) देश, काल और अवस्था (ii) उत्तम, मध्यम और अधम प्रकृति के लोग, (iii) आश्रय की अपनी प्रकृति या अन्य व्यक्तियों की उत्तेजना के कारण अथवा वातावरण के प्रभाव (iv) स्त्री और पुरुषके अपने स्वभाव के भेद।

जैसे- निर्वेद, शंका और आलस्य आदि स्त्रियों या नीच पुरुषों के संचारी भाव है; गर्व आत्मगत संचारी है; अमर्ष परगत संचारी; आवेग या त्रास कालानुसार संचारी हैं। भरत के अनुसार और अन्य आचार्यों के भी मत से पानी में उठनेवाले और आप-ही-आपविलीन होनेवाले बुदबुदों- जैसे ये संचारी या व्यभिचारी भाव स्थायी भावों के भेदों के अन्दर अलग-अलग भी हो सकते हैं और एक स्थायी भाव के संचारी दूसरे में भी आ सकते हैं। जैसे- गर्व ‘शृंगार’ (स्थायी भाव ‘रति’ का रस’) में भी हो सकता है और ‘वीर’ मेंभी।

संचारी भावों की संख्या –

संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है-

  • (1) हर्ष
  • (2) विषाद
  • (3) त्रास (भय/व्यग्रता)
  • (4) लज्जा (ब्रीड़ा)
  • (5) ग्लानि
  • (6) चिंता
  • (7) शंका
  • (8) असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता)
  • (9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख)
  • (10) मोह
  • (11) गर्व
  • (12) उत्सुकता
  • (13) उग्रता
  • (14) चपलता
  • (15) दीनता
  • (16) जड़ता
  • (17) आवेग
  • (18) निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना)
  • (19) घृति (इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चंचलता का अभाव)
  • (20) मति
  • (21) बिबोध (चैतन्य लाभ)
  • (22) वितर्क
  • (23) श्रम
  • (24) आलस्य
  • (25) निद्रा
  • (26) स्वप्न
  • (27) स्मृति
  • (28) मद
  • (29) उन्माद
  • (30) अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना)
  • (31) अपस्मार (मूर्च्छा)
  • (32) व्याधि (रोग)
  • (33) मरण

स्थायी भाव –

(4) स्थायी भाव :- रस के मूलभूत कारण को स्थायी भाव कहते हैं।

अर्थात जिस भाव का स्वरूप सजातीय एवं विजातीय भावों से तिरस्कृत न हो सके और जबतक रस का आस्वाद हो, तबतक जो वर्तमान रहे, वह स्थायी भाव कहलाता है।

मन का विकार ‘भाव’ है। भरत मुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में भावों की संख्या उनचास कही है, जिनमें तैतीस संचारी या व्यभिचारी, आठ सात्विक और शेष आठ ‘स्थायी भाव’ है। भरत के अनुसार ‘स्थायी भाव’ ये है- (i) रति, (ii) ह्रास (iii) शोक (iv) क्रोध (v) उत्साह (vi) भय (vii ) जुगुप्सा/घृणा (viii) विस्मय/आश्चर्य (ix)शम/निर्वेद (वैराग्य/वीतराग) (x)वात्सल्य रति (xi)भगवद विषयक रति/अनुराग

रस के प्रकार (रस किसे कहते हैं?)

रस का नामस्थायी भाव
श्रृंगार रसरति
वीर रस उत्साह
करूण रसशोक
हास्य रसहास
भयानक रसभय
रौंद्र रसक्रोध
वीभत्स रसजुगुप्सा
अदभुत रसविस्मय या आश्चर्य
शांत रसवैराग्य

1.श्रृंगार रस 

श्रृंगार शब्द श्रृंग और आर दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसका अर्थ सवारना होता हे। इसका स्थायी भाव रति है। श्रृंगार रस के 2 भेद है-                                         (1) संयोग श्रृंगार                                                 (2) वियोग श्रृंगार 

(क) संयोग श्रृंगार –  जहां पर नायक और नायिका का मिलन(हंसना,मजाक, नायक नायिका का परस्पर देखना बातें करना) हो जाए वहां संयोग श्रृंगार होता है।

(ख) वियोग श्रृंगार –  जहां पर नायक नायिका एक दूसरे से दूर हो और मिलने के लिए तड़प रहे हो वहां वियोग श्रृंगार होता है।

(2)  वीर रस

जहां किसी घटना को देख कर मन में उत्साह का भाव पैदा होता है वहां वीर रस का संचरण होता है।

जैसे-  मैं सत्य कहता हूं सखे।                                          सुकुमार मत जानो मुझे।।                                        यमराज से भी युद्ध में।                                          प्रस्तुत सदा मानो मुझे।।

(3) करूण रस 

जहां किसी घटना को देख कर मन में शोक का भाव पैदा हो जाए वहां करुण रस का संचरण होता है।  उदाहरण किसी परिवार में किसी व्यक्ति की मृत्यु होना शोक का भाव उत्पन्न करता है।

(4) हास्य रस

जब किसी घटना को देखने, सुनने और समझने के बाद  मानव मन में हंसी का भाव पैदा हो जाए वहां पर हास्य रस का संचरण होता है। मन में हंसी का भाव और चेहरे पर खिलखिलाहट का भाव पैदा होता है।

(5) भयानक रस 

जब किसी घटना को देख कर मन में भय का या डर का भाव पैदा होता है वहां भयानक रस का संचरण होता है।  किसी खंडहर में जाना भूत पिशाच का डर जंगल में उल्लू और चमगादड़ का आवाज का बोलना आदि।

(6)  रौद्र रस (रस किसे कहते हैं)

जब किसी घटना को देख कर मन में क्रोध का भाव पैदा हो जाए वहां पर रौंद्र रस का संचरण होता है।

(7) विभत्स रस

जहां किसी घटना को देख कर मन में घृणा का भाव आ जाए वहां विभत्स रस का संचरण होता है। जैसे मांस का सड़ना दुर्गंध पूर्ण वातावरण का होना आदि।

(8)  अद्भुत रस

जहां किसी घटना को देखकर मन में विस्मय या आश्चर्य का भाव पैदा हो जाए वहां पर अद्भुत रस का संचरण होता है।

(9)  शांत रस

जहां किसी घटना को देख कर मन में शांति,वैराग्य का भाव आ जाए वहां पर शांत रस का संचरण होता है।

(10)  वात्सल्य रस

जहां किसी घटना को देख कर मन में बचपन का का भाव प्रकट हो जाए वहां पर वात्सल्य रस का संचरण होता है।उदाहरण किसी मां बेटे का मिलना ।


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